जो प्यार ,
जो ख़ुशी अपनों के बीच रहकर,
उस छोटे से घर में ,
उस चार दिवारी में मिलती थी ,
वो ख़ुशी ,
वो शांति ,
वो सुकून ,
वो अपनापन ,
आज बड़े से महल में रहकर भी नहीं मिलती ....
हाय !
नियति का खेल तो देखो आज सब कुछ है फिर भी मेरे
दोनों हाथ खाली हैं ,
पीछे देखूं तो अपना कहने वाला कोई भी नहीं ...
निर्जीव से आज ये शरीर लग रहा
अपनों के बिना मेरा अस्तित्व आज मिट चला...
Ramjheetun
Karishma (Diya)
Blog:
diyasansaar.blogspot.com
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